कनकधारा स्तोत्र की कहानी बहुत ही पुरानी और प्रचलित है। पुराणों के अनुसार, एक दिन जगद्गुरु आदि शंकराचार्य अपने भोजन का प्रबंध करने के लिए भिक्षा पर निकल पड़े। और भ्रमण के दौरान, वे एक गरीब ब्राह्मण महिला के घर के समीप पहुंचे और भिक्षा का आग्रह करने लगे।
महिला के पास भिक्षा में देने के लिए कुछ भी नहीं था। किन्तु उसने लज्जा को छुपाया और घर में भिक्षा की खोज जारी रखी। अंत में, वो केवल एक आंवला ही एकत्र करने में सफल हो पायी। उस महिला ने शंकराचार्य से अनुरोध किया कि वे इस आंवले को भिक्षा के रूप में स्वीकार करें।
शंकराचार्य को ब्राह्मण महिला की यथा-स्थिति और गरीबी पर दया आ गयी। वे महिला के स्वार्थहीन और दयालु आचरण से भी काफी प्रभावित हुए। प्रभावित होकर शंकराचार्य ने देवी लक्ष्मी का आह्वान करते हुए २१ छंद रचे। देवी लक्ष्मी इन २१ छंदों से प्रसन्न हुईं और शंकराचार्य के समक्ष प्रकट हुईं।
देवी लक्ष्मी ने शंकराचार्य के छंदों से प्रसन्न होते हुए उनसे पूछा कि उन्होंने उनका आह्वान क्यों किया? तब शंकराचार्य ने देवी लक्ष्मी से प्रार्थना की, कि वे इस गरीब ब्राह्मण महिला के परिवार को धन-धान्य से सुसज्जित कर उनकी गरीबी और दरिद्रता को समाप्त करने की कृपा करें।
देवी लक्ष्मी ने शंकराचार्य की प्रार्थना को अस्वीकार करते हुए कहा कि ये महिला पूर्वजन्म में परोपकारी नहीं थी और अपने कर्मों के नियमों से बंधी होने के कारण इस वर्तमान जन्म में इसे गरीबी और दरिद्रता को भोगना अनिवार्य है। तत्पश्चात्, शंकराचार्य ने देवी लक्ष्मी से अनुरोध करते हुए कहा कि महिला में पूर्ण निस्वार्थ भाव होने के कारण उसे अतीत में किये गए कुकर्मों और उनके बंधनों से मुक्त कर दिया जाना चाहिए। केवल आप ही ब्रह्मदेव द्वारा लिखित भविष्य को सम्पादित व निष्पादित करने में समर्थ हैं। देवी लक्ष्मी शंकराचार्य के इस कथन से प्रसन्न होकर गरीब ब्राह्मण महिला के घर पर शुद्ध सोने से बने आंवले की वर्षा कर देती हैं।
उसके बाद आदि शंकराचार्य द्वारा रचित इन इक्कीस छंदों को कनकधारा स्तोत्रम के नाम से जाना जाने लगा। ये स्तोत्रम देवी लक्ष्मी को अति-प्रिय है।